विनाश होते जंगल की कहानी

 

विनाश होते जंगल की कहानी।






राजीव चावला जी महानगर देश की राजधानी दिल्ली के निवासी है। पिछले कुछ दिनों से जंगल की यात्रा में गुजरात के डांग से एक दुख भरी वास्तविक जंगल की कहानी खुला पत्र के माध्यम से ग्रुप में प्रेषित किए गए



राजीव चावला:

 सभी ग्रुप वासियों को नमस्कार,


               कल गांव में कुछ बुजुर्ग लोगों से और कुछ अधेड़ लोगों से बातचीत करने का मौका मिला.

          बूढ़े लोगों ने बताया कि अब से 60 साल पहले तक यहां खेती कोई नहीं करता था और,अपने खाने और दूसरी चीजों की जरूरत 80 से 90 प्रतिशत तक वो सिर्फ़ जंगल से ही पूरी करते थे.

             यानि शिकार और कंद मूल,फल फूल और औषधि ये सब की सब चीजें जंगल से ही मिल जाती थी.

       खेती करीब 50 साल पहले ही इन लोगों ने करनी शुरू की.

 इसलिए,खेती करने की कोई अच्छी प्रैक्टिस इनकी परम्परा में नहीं है.

 कुछ ऐसे लोग मिले जिन्होंने अपनी युवावस्था का काफ़ी समय लकड़ी की तस्करी में बिता दिया.

            50 साल पहले ही जंगल काटने का सिलसिला शुरू हुआ जो अभी तक बाकायदा जारी है.

            जंगल काटने और सागोन की लकड़ी से मिलने वाले पैसे को लोगो ने एक अच्छे अवसर की तरह देखा और उसे रोजगार समझा.

 वो ये सब बातें काफ़ी खुश होकर बताते हैं और उन्हें इन सब चीजों का कोई मलाल नहीं है.

           अब ट्रैक्टर और जेसीबी आने के बाद आफत का दायरा बड़ा हो गया है.

                मेरा अनुमान है कि अगले 25 से 35 सालों में यहां के बाक़ी बचे पतले पेड़ भी गायब हो जाएंगे.

               नई पीढ़ी जंगल और पेड़ो के नाम से उदासीन है और अधिकतर लोग पहाड़ों से नीचे सूरत,नासिक,अमदाबाद,नवसारी में खेत मजदूर या फैक्ट्री मजदूर के रूप में काम करते हैं.

 खेती में भी युवाओं को कोई दिलचस्पी नहीं है.

          बतौर मजदूर वो महीने में पति पत्नी मिलकर हर महीने करीब 20 हजार रु कमा लेते हैं और खेती में वो इतना कमा लेंगे ऐसी कोई गारंटी नहीं है.

 यानि तीन पीढ़ियों से मेरी बातचीत हुई पहली अपनी जिन्दगी की हर जरूरत जंगल को जिन्दा रखकर पूरी करती रही,दूसरी जंगल काट बेचकर अपना काम चलाती रही और तीसरी मुख्य रूप से छोटी बड़ी मजदूरी कर रही है.

शहरों में पर्यावरण का रोना गाना खूब होता है लेकिन यहां किसी की जुबान पर ये शब्द नहीं आते.

         करीब करीब हर घर में 2 से चार पेड़ आम के लोगों ने लगा रखे हैं और 2 से 4 पौधे पपीते के लगा रखे हैं.

           गाय,भैंस,बकरी और मुर्गी पालते है. गाय,भैंस और बकरियां चराई के लिए पूरी तरह जंगल पर निर्भर हैं तो अधिक चराई का जो दुष्परिणाम होता है वो अपनी जगह पर है.

 पर्यावरण को लेकर सक्रिय कोई व्यक्ति,कोई एनजीओ, कोई संस्था या कोई अन्य संगठन मुझे यहां देखने या बात करने को नहीं मिला.

इस जिले में कुल 311 गांव हैं.

          हिन्दू और ईसाई का दबा छुपा झगड़ा चलता रहता है. 

           सूरत के एक सेठ जी ने डांग के सभी 311 गांवों में कुल 311 मन्दिर बनाने की घोषणा अभी 10 दिन पहले ही की है.

          यानि पूरे जिले के हर गांव में एक मंदिर और हर मंदिर के निर्माण पर 9 लाख रुपए की लागत आएगी.

यानि सबसे ज्यादा उपेक्षा उसी  चीज की है जिसकी हमें सबसे ज्यादा जरूरत है.

   पूरे राज्य में और पूरे देश में पर्यावरण की गम्भीर अनदेखी है.एक जिले की कथा, देश के हर जिले में समान ही मिलेगी.

 तीन पीढ़ी पीछे जाकर अब हम जिएंगे नहीं फिर भी उन पुरखों को नमस्कार करके मैं अपनी बात समाप्त करता हूं जो अनपढ़ थे लेकिन हमारे लिए एक बड़ी विरासत छोड़ गए.

          मेरी यात्रा जारी है.मेरी बातों से किसी को कष्ट पहुंचा हो तो मैं हृदय से क्षमा चाहूंगा.🙏🙏

 अभी मेरे सामने ही एक युवा जोड़ा सागोन का पेड़ काट कर गिरा रहा है.

            पहले सोचा कि इन लोगों से कुछ बातचीत करु लेकिन.... अब आगे निकल आया हूं.



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